मार्कसवादियों के लिये वर्तमान विश्वव्यापी ढांचागत संकट अप्रत्याशित नहीं था. एक संकट से दूसरे संकट की ओर भागना और लड़खड़ाना, बड़े, युगांतकारी संकटों के बाद नई चुनौतियों से निपटने के लिये संचय की प्रक्रिया का पुनर्गठन करना, विलम्बित (लेट) पूंजीवाद के अस्तित्व की यही प्रणाली रही है. साम्राज्यवाद में संक्रमण आरंभ होने के बाद के इतिहास पर नजर डालने से हम ऐसे चार ढांचागत संकटों को चिन्हित कर सकते हैं, जो लगभग अद्भुत रूप से चार दशकों के नियमित अंतराल के बाद उभरकर आते रहे हैं:
1. 1890 के दशक की “महामंदी” (1929 में आने वाली और बड़ी महामंदी से पहले यही महामंदी कहलाती थी) का मुख्य कारण बड़े ट्रस्टों और कार्टेलों के बीच “गलाकाट प्रतियोगिता” के चलते तेजी से घटता मुनाफा था. इसी वजह से अमरीका में 1890 में शरमैन ऐक्ट पारित किया गया, जो पहला प्रमुख ट्रस्ट-विरोधी कानून था. बड़े अंतर्राष्ट्रीय बैंकों का उदय और “बैंक एवं औद्योगिक पूंजी के सम्मिलन” के जरिये वित्तीय पूंजी का आविर्भाव, वित्तीय अल्पतंत्र का वर्चस्व तथा अन्य किस्म के एकाधिकार, उत्पादन पर सट्टेबाजी का छा जाना और मालों के निर्यात से कहीं ज्यादा पूंजी का निर्यात किया जाना -- जिनकी चर्चा लेनिन ने ‘साम्राज्यवाद’ में की है -- जैसे ढांचागत परिवर्तनों के जरिये मुनाफे की समस्या को हल करने की कोशिश की गई.
2. इन परिवर्तनों के फलस्वरूप, कर्ज के अतिविस्तार और शेयर बाजारों में सट्टेबाजी पर आधारित वित्तीय निवेश पर फिर से मुनाफा होने लगा और इस वित्तीय पूंजी का वर्चस्व कायम हो गया. लेकिन “अत्यधिक फलते-फूलते 1920 के दशक” की समाप्ति 1929 के शेयर बाजार के सत्यानाश में हुई और महामंदी छा गई. यह संकट कैसे आया और कैसे इस संकट से पार पाया गया इसकी चर्चा हम थोड़ी देर बाद करेंगे.
3. 1970 और 1980 के दशकों में मुनाफे की दरों में गिरावट एक बार फिर वापस आ गई और इसके साथ तेल संकट तथा स्थायी मुद्रास्फीति ने मिलकर मंदीस्फीति (स्टैगफ्रलेशन) का रूप धारण कर लिया. इस संकट के प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में सामने आया डाॅलर का संकट और स्वर्णमान (गोल्ड स्टैंडर्ड) की समाप्ति. पूंजीवाद एक बार फिर ढांचागत पुनर्गठन -- नवउदारवादी वैश्वीकरण और वित्तीयकरण के दौर से गुजरा (इसके बारे में विस्तार से चर्चा बाद में होगी).
4. अब वृद्धि का यह नया माॅडल एक गंभीर संकट से घिर गया है; यह संकट अतिलोभियों, “अपनी विशालता के चलते पतन की संभावना से मुक्त” और राज्य का पूर्ण समर्थन प्राप्त बैंकों के अनैतिक क्रियाकलापों द्वारा लाया प्रतीत होता है, और यह एक ऐसा संकट है जिसने साख से प्रेरित और बुलबुले से आई वृद्धि की टिकने में असमर्थता को जाहिर कर दिया है. इसके समाधान की खोज जारी है, मगर अभी तक इसकी उम्मीद की कोई किरण नहीं दिखती.
उपरोक्त वर्णन का उद्देश्य समूचे इतिहास का पूरा विवरण देना नहीं है, मसलन, हमने युद्धों की भूमिका पर विचार नहीं किया है. हमने केवल यह दिखलाने की कोशिश की है कि ये युगांतकारी संकट विलम्बित पूंजीवाद के विशिष्ट दौरों को एक-दूसरे से अलग करने वाली विभाजक घड़ियां हैं -- ये ऐसी उग्र विस्फोटक दरारें हैं जो उसके ढांचे में, उसके स्वरूपों में और उसकी प्रणालियों में प्रतिमान परिवर्तन ला देती हैं; जो अंशतः इस उत्पादन प्रणाली की अत्यावश्यक निरंतरता को उलझा देती हैं. एक और महत्वपूर्ण बिंदु है, जिसे हमने अंतिम दो अध्यायों में अलग से चर्चा करने के लिये सुरक्षित रखा है. यह पूंजीपति वर्ग और राज्य द्वारा अपने संकट के समूचे बोझ को मेहनतकश जनता के कंधों पर लाद देने की कोशिश के खिलाफ अतीत और वर्तमान के जन आंदोलनों के प्रभाव से सम्बंधित है.
चार ढांचागत संकटों में से अच्छा यही होगा कि हम महामंदी (और उसके परिणामों) और वर्तमान संकट का बारीकी से विश्लेषण करें. उल्लेखनीय बात है कि इन दोनों संकटों का साझा अनुमानित कारण एकाधिकारी वित्तीय पूंजी (जैसे कर्ज का विस्तार और अत्यधिक सट्टेबाजी) के बेलगाम क्रियाकलापों में निहित है और इस लिहाज से यह उदारवाद का -- उन दिनों के पुराने किस्म के उदारवाद का, और आज एक नई किस्म के उदारवाद का संकट है.
जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, बड़े एकाधिकारी बैंक और कारपोरेशन, जो बीसवीं सदी की शुरूआत में साम्राज्यवाद के आगमन की विशिष्टता बने थे, निर्विचार लूट में इस तरह लिप्त हो गये जिसके फलस्वरूप महामंदी का दौर आया. मेहनतकश वर्गों के सशक्त संघर्षों (और बाद में) जीवंत समाजवाद द्वारा पेश की गई राजनीतिक चुनौती जैसे अन्य कारकों के साथ मिलकर, महामंदी जो विनाश लाई उसने पूंजी-सम्राटों को एक हद तक अपने तौर-तरीकों को सुधारने के लिये बाध्य किया. इसको ही (अमरीका में) न्यू डील और (पश्चिमी यूरोप में) कल्याणकारी राज्य/सामाजिक जनवाद कहा गया. (बाॅक्स देखें)
मूल बात यह है कि अमीरों ने इस बात को समझा कि एक किस्म का समझौता करने तथा एक तरह के विनियमन को स्वीकार कर लेने का वक्त आ गया है, और उन्होंने यह उम्मीद लगाई कि अपने चंद विशेषाधिकारों को त्याग देने से वे अधिकांश विशेषाधिकारों को अपने पास बनाये रख सकेंगे. इस प्रकार बैंकिंग, परिवहन, बिजली और संचार जैसे अर्थतंत्र के प्रमुख परिक्षेत्रों को राज्य द्वारा विनियमन के मातहत लाया गया. बड़े कारपोरेशनों ने मजदूर यूनियनों को कुचल देने की कोशिश करने के बजाय उनके साथ मोलतोल करना शुरू किया. अमरीका में इन कारपोरेशनों को राष्ट्रीय श्रम सम्बंध अधिनियम, जिसे वहां वैगनर ऐक्ट (1935) कहा गया, को मानने पर बाध्य किया गया. और बेरोजगारी भत्ता तथा जन-स्वास्थ्य सेवा का सृजन तथा विस्तार किया गया.
इसके साथ-साथ, जापान, पश्चिम जर्मनी एवं अन्य संश्रयकारियों के युद्ध-विध्वस्त अर्थतंत्रों को पुनरुज्जीवित करने की प्रक्रिया में वाशिंगटन द्वारा मार्शल प्लान शुरू किया गया, और अमरीका की छत्रछाया में विकास को सहायता देने के लिये अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक की स्थापना की गई.
1950 के दशक की शुरूआत में अमरीका में अमीरों पर लगने वाले सीमांत आयकर को बढ़ाकर सबसे उच्च आय वर्ग के लिये 92 प्रतिशत कर दिया गया. आर्थिक मंदी (रिसेशन) और अवसाद (डिप्रेशन) अपना इलाज खुद अपने-आप कर लेंगे, “मुक्त बाजार” के इस पुराने विश्वास को त्यागकर सरकारों ने अर्थतंत्रा में स्थायित्व लाने और बेरोजगारी की दर को कम बनाये रखने के उद्देश्य से (उदाहरणार्थ, राजकोषीय एवं मौद्रिक नीतियों के जरिये) बड़े जोरशोर से हस्तक्षेप करना शुरू किया.
उपरोक्त तमाम चीजों ने, युद्ध के वर्षों के दौरान अवदमित उपभोक्ता मांग जैसे अन्य कारकों के साथ मिलकर, पूंजीवाद के तथाकथित स्वर्णिम दौर (1948-73) की शुरूआत की, जिसके दौरान विकसित पूंजीवादी देशों में अतुलनीय वृद्धि देखी गई. यद्यपि साम्राज्यवाद की बुराइयां तो समाप्त नहीं हुईं, मगर इन देशों में मेहनतकश जनता की आर्थिक स्थितियों में तथा क्रयशक्ति में उल्लेखनीय सुधार आया, जिसने विस्तारित पैमाने पर पुनरुत्पादन को टिकाये रखने में मदद पहुंचाई, लेकिन इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह स्थायी नहीं रहा.
“जैसे बड़े पैमाने के उत्पादन के साथ-साथ बड़े पैमाने का उपभोग भी होना ही होगा, वैसे ही बड़े पैमाने का उपभोग का मतलब ही हो जाता है सम्पदा का वितरण -- मौजूदा सम्पदा का ही नहीं, बल्कि उस सम्पदा का जिसे मौजूदा समय में उत्पन्न किया जा रहा है, जिससे लोगों को राष्ट्र की आर्थिक मशीनरी के द्वारा पेश किये गये मालों एवं सेवाओं के समकक्ष क्रय शक्ति से लैस किया जा सके”.[जोर मूल उद्धरण में ही]
उपरोक्त किस्म की वितरण प्रणाली को हासिल करने के बजाय एक विशाल तंत्र ने 1929-30 तक चालू उत्पादित सम्पदा के बढ़ रहे हिस्से को चंद हाथों में केन्द्रित कर दिया था. इसने उनके लिये पूंजी संचय का काम किया. लेकिन बड़े पैमाने पर उपभोक्ताओं के हाथों से क्रय शक्ति को छीन लेने का नतीजा यह हुआ कि पूंजी बचाने वालों ने खुद को अपने उत्पादों के लिये कारगर मांग से वंचित कर दिया, जो उनके द्वारा संचित पूंजी के नये कारखानों में निवेश को जायज ठहरा सके. इसका परिणाम यह हुआ कि जैसे पोकर खेल (एक किस्म का जुआ) में जहां (पैसे की एवज में प्राप्त) टोकेन क्रमशः कम-से-कम हाथों में सिमटतेे जाते हैं, और अन्य लोग केवल उनसे कर्ज लेकर ही खेल में बने रह सकते हैं. जब उनके कर्ज लेने का मौका ही समाप्त हो जाता है, तो खेल खत्म हो जाता है.
1920 के दशक में कुछ ऐसा ही हुआ. हमने उस दौर में बैंकिंग प्रणाली के बाहर कर्ज के असाधारण विस्तार की मदद से रोजगार के ऊंचे स्तरों को बरकरार रखा. यह कर्ज व्यवसाय में हुई बड़े पैमाने की बचत और व्यक्तिगत बचत, खास तौर पर उच्चतर आय वाले वर्गों, जिन पर आयकर की दर अपेक्षाकृत नीची थी, द्वारा की गई बचत में भारी इजाफा होने के चलते मिल सका था. ... इस किस्म के ऋण का सृजन करके खर्च करने को दिया गया प्रोत्साहन बहुत थोड़े समय तक ही कारगर रहा और लम्बी अवधि के लिये रोजगार के ऊंचे स्तर को बरकरार रखने के लिये उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता था. अगर राष्ट्रीय उत्पाद से प्राप्त चालू आय का बेहतर बटवारा हुआ होता -- दूसरे शब्दों में, अगर व्यवसाइयों तथा उच्चतर आय वर्गों ने कम बचत की होती और निम्न वर्गों को अधिक आय हुई होती -- तो हमारे अर्थतंत्र को अपेक्षाकृत बड़ी स्थिरता हासिल हुई होती. उदाहरणार्थ, अगर कारपोरेशनों और धनी व्यक्तियों को शेयर बाजार में सट्टेबाजी के लिये ऋण के बतौर जो 6 अरब डाॅलर की राशि दी गई, उसे कीमतों को घटाने अथवा उच्चतर वेतन के बतौर जनता के बीच वितरित किया जाता और कारपोरेशनों एवं खुशहाल लोगों को कम मुनाफा मिलता, तो उसने 1929 के अंत में आये आर्थिक पतन को या तो रोक दिया होता अथवा उसका असर काफी हद तक हल्का कर दिया होता.
वह समय भी आ गया जब कर्ज में देने के लिये पोकर का कोई भी टोकेन नहीं बचा. तब कर्जदारों को मजबूर होकर अपने उपभोग में कटौती करनी पड़ी ताकि वे कुछ तो बचा सकें जिसका इस्तेमाल बकाया कर्जों का बोझ थोड़ा घटाने में किया जा सके. स्वाभाविक रूप से इसके चलते तमाम किस्म के मालों की मांग घट गई और एक ऐसी स्थिति ला दी जो अति-उत्पादन की प्रतीत होती थी, लेकिन वास्तव में अगर मुद्रा की दुनिया के बजाय यथार्थ की दुनिया में देखा जाय तो वह जरूरत से कम उपभोग था. उसने कीमतों में भी गिरावट को अंजाम दिया और बेरोजगारी भी बढ़ा दी.
बेरोजगारी ने मालों के उपभोग को और घटा दिया, जिसने फिर बेरोजगारी को बढ़ा दिया, और इस प्रकार वह चक्र पूरा हो गया जिससे लगातार कीमतें गिरती गईं.
तो मेरी समझ से इसी कारण से महामंदी आई.” [बिकाॅनिंग फ्रंटियर्स, न्यूयार्क, अल्फ्रेड ए नोफ, 1951]