महामंदी (ग्रेट डिप्रेशन) से पहले और बाद में तमाम किस्म की “प्रत्यक्ष कार्रवाइयों” ने अमरीका को हिला दिया था और वर्ग शक्तियों के संतुलन को इस प्रकार झुका दिया था कि उसके चलते न्यू डील संभव हो सकी. हावर्ड जिन ने अपनी पुस्तक “अमरीका में जनता का इतिहास” में इस प्रक्रिया का सचित्र विवरण प्रस्तुत किया है, जिस प्रक्रिया को उस दौर के परम्परागत विवरणों में दबा दिया गया. यहां हम आपके सामने उस विवरण के प्रेरणादायक अंश पेश कर रहे हैं:
डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट ने 1933 के वसंत में यह वादा करते हुए कि वे कठिन दौर से राहत दिलाएंगे, राष्ट्रपति पद का दायित्व संभाला. उनके द्वारा आरंभ किये गये सुधारों को दो अत्यावश्यक जरूरतों को पूरा करना था: पूंजीवाद को इस तरीके से पुनर्गठित करना कि वह संकट से छुटकारा पा सके और व्यवस्था को स्थिरता प्रदान कर सके और साथ ही, खतरनाक ढंग से बढ़ रहे स्वतःस्फूर्त विद्रोह को टालना ... .”
वर्ष 1931 से ही “हताश लोग सरकार से मदद पाने की आशा में इंतजार नहीं कर रहे थे; वे अपनी मदद आप कर रहे थे, प्रत्यक्ष कार्रवाइयां कर रहे थे. देश भर में लोग बेदखली को रोकने के लिये स्वतःस्फूर्त रूप से संगठित हो गये थे. देश भर में बेरोजगारों की परिषदें बन गई थीं, कई मामलों में उन्हें कम्युनिस्टों ने संगठित किया था और वे ही उनका नेतृत्व कर रहे थे. इन परिषदों का काम था किसी बेसहारा को बेदखल करने के प्रयास को रोकना, या फिर अगर बेदखल कर दिया गया हो तो राहत आयोग पर दबाव डालना कि उसे नया घर खोजकर दे, अगर बेरोजगार मजदूर द्वारा बिल अदा न किये जाने के चलते गैस या पानी के कनेक्शन को काट दिया गया हो तो उसके लिये उपयुक्त अधिकारियों से मुलाकात करके समस्या को हल करना इत्यादि. सियाटल में मछुआरों की यूनियन ने पकड़ी हुई मछलियों की अदला-बदली फल-सब्जियां बटोरने वालों के साथ की, और लकड़ी काटने वालों ने लकड़ी के साथ.
शायद ‘अपनी मदद आप करो’ का सबसे उल्लेखनीय उदाहरण पेन्सिल्वानिया के कोयला क्षेत्र में दिखाई पड़ा जहां बेरोजगार खान-श्रमिकों की टीमों ने कम्पनियों की जमीन पर छोटी-छोटी खदानें खोदीं, कोयला निकाला, उसे ट्रकों पर लादकर शहर ले गये और उसे बाजार दाम से कम कीमतों पर बेचा. 1934 आते-आते तक कोई बीस हजार मजदूर इस “नाजायज” कोयले की 50 लाख टन मात्रा का उत्पादन कर चुके थे. जब उन पर मुकदमा चलाने की कोशिश की गई तो स्थानीय जूरी उनको सजा देने पर सहमत नहीं हुए, स्थानीय जेलरों ने उनको कैद में नहीं रखने की घोषणा की. अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिये निजी सम्पत्ति का सीमित दायरा तोड़ते हुए खान-श्रमिकों की यह कार्रवाई साथ ही वर्गीय चेतना का एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा भी था अर्थात, मजदूरों की समस्या खुद मजदूर ही हल कर सकते हैं.
“क्या न्यू डील वाले -- रूजवेल्ट और उनके सलाहकार, उनका समर्थन करने वाले व्यवसायी भी वर्ग-सचेत थे ? क्या वे इस बात को समझते थे कि वर्ष 1933 और 1934 में रोजगार का सृजन करने, खाद्य आपूर्ति करने, राहत देने, इस धारणा को, “कि मजदूरों की समस्याओं का समाधान केवल उनके द्वारा ही किया जा सकता है”, धे-पोंछकर साफ कर देने के लिये इन कदमों को शीघ्रता से ग्रहण करना होगा ? शायद, मजदूरों की वर्ग-चेतना की ही तरह ये सारी कार्यवाहियां भी किसी बंधे-बंधए सिद्धांत से नहीं उपज रही थीं, बल्कि स्वभाव प्रेरित व्यावहारिक आवश्यकता से पैदा हो रही थीं.
“शायद ऐसी चेतना ने ही वैग्नर-काॅनरी बिल को जन्म दिया, जिसे श्रम विवादों का नियमन करने के लिये 1934 में कांग्रेस में प्रस्तुत किया गया था. उसी वर्ष 1934 की गर्मी में मिनियापोलिस में ट्रक व कार चालकों व गोदाम श्रमिकों (टीमस्टर्स) की एक हड़ताल को अन्य मेहनतकश लोगों ने समर्थन दिया और जल्द ही शहर में सारा आवागमन बंद हो गया. उसी वर्ष, 1934 के पतझड़ में सबसे बड़ी हड़ताल हुई -- दक्षिण में 3,25,000 कपड़ा मजदूरों की हड़ताल. मजदूर मिल से बाहर निकल आये और उन्होंने फ्लाइंग स्क्वाड्रन बनाकर ट्रकों एवं अन्य वाहनों में बैठकर हड़ताली मजदूरों के समूचे आवासीय क्षेत्रों का दौरा किया, पिकेटिंग (धरना) किया, रक्षकों से झड़प की, मिलों में घुस गये और मशीनों को खोलना शुरू कर दिया. अन्य शहरों की भांति यहां भी हड़ताल को आवेग शीर्ष पर बैठे अनिच्छुक यूनियन नेतृत्व का विरोध् करने वाली कतारों से मिला था. न्यूयाॅर्क टाइम्स ने लिखा, “परिस्थिति का गंभीर रूप से खतरनाक पहलू यह है कि वह नेताओं के हाथ से पूरी तरह बाहर निकल जायेगी.” दक्षिण के देहाती क्षेत्र में भी संगठन बनने लगा, जो अक्सर कम्युनिस्टों द्वारा प्रेरित था, लेकिन जिसे गरीब श्वेत और अश्वेत बटाईदार किसानों अथवा फार्म श्रमिकों के विक्षोभ से बल मिलता था, जो यों तो हमेशा आर्थिक कठिनाइयों में ही जीते थे पर मंदी ने उन पर और गहरी चोट की थी. 1934 और 1935 में बड़े पैमाने के उत्पादन वाले नये उद्योगों में -- आॅटो, रबर, पैकिंग हाउस आदि में -- कार्यरत लाखों मजदूर, जिन्हें कठोर नियंत्रण में चलने वाली चुनिंदा मजदूरों की यूनियन अमेरिकन फेडरेशन आॅफ लेबर (एएफएल) ने अपनी कतारों के बाहर ही रख छोड़ा था, अब संगठित होने लगे. एएफएल उनको और अनदेखा नहीं कर सकी और उसने इन मजदूरों को शिल्प स्तर से परे, उद्योग के आधार पर -- जिसमें एक प्लांट में कार्यरत सारे मजदूर एक ही यूनियन में रहते हैं -- संगठित करने के लिये कमेटी फाॅर इंडस्ट्रियल आॅर्गनाइजेशन कायम की. जाॅल लुइस के नेतृत्व में चलने वाली यह कमेटी बाद में एएफएल से अलग हो गई और कांग्रेस आॅफ इंडस्ट्रियल आॅर्गनाइजेशन्स, सीआईओ, कहलाई.
“लेकिन इन कतारों द्वारा की गई हड़तालों और विद्रोहों का ही असर था कि एएफएल और सीआईओ दोनों का यूनियन नेतृत्व कार्यवाही में उतरने पर मजबूर हो गया. ... तीस के दशक के शुरूआती वर्षों में ओहाइओ के एक्राॅन में रबर मजदूरों के बीच से एक नए किस्म की कार्यनीति उभरी -- सिट-डाउन स्ट्राइक (हड़ताली धरना). मजदूर कारखाने से बाहर निकल जाने के बजाय कारखानों में ही बैठ गये और इसकी प्रत्यक्ष सुविधा थी: वे हड़ताल-तोड़कों के इस्तेमाल को प्रत्यक्ष रूप से रोक पाये; उन्हें यूनियन अधिकारियों के माध्यम से काम नहीं करना पड़ा बल्कि वे परिस्थिति पर खुद ही प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण कायम रखे हुए थे. उन्हें ठंड और बारिश में बाहर नहीं घूमते रहना पड़ा बल्कि वे एक आश्रय में थे. वे अलगाव में नहीं पड़े थे बल्कि ठीक जैसे वे कार्यरत स्थितियों में अथवा कार्यस्थल के बाहर पिकेट लाइन में रहते थे, वैसे ही यहां रहे; वे हजारों की तादाद में एक छत के तले रह रहे थे और आपस में बातें कर सकते थे, संघर्षरत समुदाय के रूप में थे.” 1936 के शुरूआती दिनों में, जब एक्राॅन स्थित फायरस्टोन रबर कारखानों में मजदूर वेतन में कटौती का शिकार हुए और कई यूनियन-सदस्यों को काम से निकाल दिया गया, तो सिट-डाउन स्ट्राइक की गई जो सभी प्लांटों में फैल गई. “एक अदालत ने मास-पिकेटिंग (जन-धरना) के खिलाफ निषेधाज्ञा (इन्जंक्शन) जारी की. इसे अनदेखा किया गया और इंटरनेशनल सोशलिस्ट आॅर्गनाइजेशन (आईएसओ) के प्रतिनिधियों ने शपथ ग्रहण की. लेकिन जल्द ही उन्हें समूचे एक्राॅन में दस हजार मजदूरों का सामना करना पड़ा. एक महीने में हड़ताल को जीत हासिल हो गई.
“... उस साल दिसम्बर के महीने में सबसे लम्बी सिट-डाउन स्ट्राइक मिशीगन के फ्लिंट में फिशर बाॅडी प्लांट नं. 1 में आरंभ हुई. ... चालीस दिनों तक वे दो हजार मजदूरों के एक समुदाय के बतौर कारखाने में ही रहे. ... उनके बीच संसदीय कार्यप्रणाली, जनसभा में भाषण, मजदूर आंदोलन का इतिहास आदि विषयों पर अध्ययन क्लास चलाये गये. युनिवर्सिटी आॅफ मिशीगन के स्नातक छात्रों ने आकर पत्रकारिता और सृजनात्मक लेखन के विषय पर प्रशिक्षण दिया.
“ऐसी निषेधाज्ञाएं जारी होती थीं, लेकिन फिर भी पांच हजार सशस्त्र मजदूरों का जुलूस आकर प्लांट को घेर लेता था और तब मजबूरन उस निषेधाज्ञा को लागू करने की कोई कोशिश नहीं की जाती थी. पुलिस मजदूरों पर आंसू गैस के गोलों से आक्रमण करती थी तो मजदूर आग बुझाने वाले पानी के पाइपों (फायरहोस) से उन्हें जवाबी टक्कर देते थे. तेरह हड़ताली मजदूर गोलीबारी से घायल हो गये, लेकिन पुलिस को पीछे खदेड़ दिया गया. गवर्नर ने नेशनल गार्ड (रिजर्व मिलिटरी फोर्स) को बुला लिया. अब तक हड़ताल जनरल मोटर्स के अन्य कारखानों तक फैल चुकी थी. अंततः एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार छह महीने का शर्तनामा बना, जहां कई सवालों को अनसुलझा ही छोड़ दिया गया, मगर इस चीज को स्वीकार किया गया कि अब से कम्पनी को व्यक्तियों से नहीं बल्कि यूनियन से वार्ता करनी होगी.
“वर्ष 1936 में 48 सिट-डाउन हड़तालें हुईं. वर्ष 1937 में उनकी तादाद 477 तक पहुंच गई ... यहां तक कि नेशनल गार्ड की एक कम्पनी के 30 सदस्यों ने भी वेतन न मिलने के कारण ... सिट-डाउन (धरना) हड़ताल का सहारा लिया.
“सिट-डाउन हड़तालें व्यवस्था के लिये खास तौर पर इसलिये खतरनाक थीं कि परम्परागत यूनियन नेतृत्व को उन पर कोई नियंत्रण नहीं हासिल था. मजदूरों के विक्षोभ के सामने व्यवस्था में स्थिरता लाने के लिये ही 1935 में वैग्नर कानून को पारित किया गया था, जिसके तहत राष्ट्रीय श्रम सम्बंध बोर्ड (नेशनल लेबर रिलेशंस बोर्ड, एनएलआरबी) कायम किया गया. 1936, 1937, 1938 में हड़तालों की लहरों ने इसकी मांग को और आवश्यक बना दिया. एक स्टील कारपोरेशन ने वैग्नर ऐक्ट को अदालत में चुनौती दी, मगर सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को संवैधानिक घोषित किया.”
तो फिर, शासक वर्ग ने यूनियनों की तेज गति से बढ़ोत्तरी को क्यों मंजूर कर लिया, जो आज हमें आश्चर्यजनक लगता है? इसका जवाब परिस्थितियों की भिन्नता में निहित है. हमारे दौर में पूंजीपति उन मजदूरों को, जो यूनियन में नहीं संगठित हैं, ज्यादा आसानी से बस में कर लेता है, जो उन दिनों के स्वतःस्फूर्त, जोशीली वर्गीय कार्यवाही के बिल्कुल विपरीत था. हावर्ड जिन लिखते हैं:
“मालिक लोग यूनियनों को पसंद नहीं करते थे, मगर वे उन पर तुलनात्मक रूप से ज्यादा नियंत्रण रख सकते थे -- वे मानते थे कि वाइल्डकैट स्ट्राइक (यूनियन नेतृत्व से पूछे बिना की गई हड़ताल) की अपेक्षा यूनियनों से वार्ता करने के जरिये व्यवस्था ज्यादा स्थिर रहेगी. वर्ष 1937 के वसंत में न्यूयार्क टाइम्स में छपे एक लेख का शीर्षक था “सीआईओ यूनियनों ने अनधिकृत सिट-डाउन पर पाबंदी लगाई”. इस लेख में कहा गया है कि “सभी संगठकों और प्रतिनिधियों को कठोर आदेश दिया गया है कि अगर वे अंतर्राष्ट्रीय अधिकारियों की सहमति लिये बिना काम रोको को स्वीकृति देते हैं तो उन्हें निकाल बाहर किया जायेगा. ...” द टाइम्स ने सीआईओ के गतिशील नेता जाॅन एल. लुइस को उद्धृत किया: “सीआईओ के साथ समझौता सिट-डाउन, लाइ-डाउन (लेट जाना) या फिर अन्य किसी तरह की हड़ताल के खिलाफ समुचित सुरक्षा है.” इस प्रकार, 1930 के दशक के मध्य में मजदूरों द्वारा सीधी कार्रवाई को नियंत्रित करने के लिये दो परिष्कृत तरीके ईजाद किये गये. पहला, नेशनल लेबर रिलेशंस बोर्ड यूनियनों को कानूनी दर्जा प्रदान करेगा, उनकी बात सुनेगा, उनके कुछेक विक्षोभों का समाधान भी करेगा. इससे मजदूरों की ऊर्जा को मतदान की दिशा में मोड़कर श्रमिक विद्रोह को थोड़ा मंद किया जा सकेगा -- ठीक जैसे संवैधानिक प्रणाली ने संभावित रूप से चिंताजनक ऊर्जा को वोट डालने की दिशा में मोड़ दिया था. एनएलआरबी आर्थिक टकरावों की हद उसी तरह से तय कर देगा जिस तरह मतदान ने राजनीतिक टकराव के मामले में किया था. और दूसरा, खुद श्रमिक संगठन या यूनियन, यहां तक कि सीआईओ जैसी जुझारू और आक्रामक यूनियन भी मजदूरों की विद्रोह में लगने वाली ऊर्जा को शर्तनामों, समझौता वार्ताओं, यूनियन की बैठकों आदि की ओर मोड़ देगी और हड़तालों की संख्या को कम करने की कोशिश करेगी, ताकि वह विशाल, प्रभावशाली और यहां तक कि सम्मानित संगठनों का निर्माण कर सके.”
इस प्रकार, महामंदी की अपवादस्वरूप परिस्थितियों ने -- और यकीनन, सोवियत संघ में कम्युनिज्म और जर्मनी में फासीवाद के दुहरे खतरों ने -- अमरीकी पूंजीपति वर्ग को न्यू डील के एक प्रमुख संघटक तत्व के बतौर अपेक्षाकृत सहनशील श्रम नीति ग्रहण करने पर मजबूर किया. जब द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अवस्था में थोड़ा बहुत सुधार हुआ तो 1946 में हड़तालों का एक नया दौर आया, तब जून 1947 में श्रमिक-प्रबंधन सम्बंध अधिनियम (टाफ्ट हार्टले ऐक्ट) पारित करके आंशिक रूप से पुनः संतुलन कायम किया गया. इसने वैग्नर ऐक्ट में सुधार किया, जिसमें खास कर यूनियनों द्वारा अपनाये जाने वाले “अनुचित श्रम आचरणों” को परिभाषित किया गया. इसके 34 वर्ष बाद इसी ऐक्ट का इस्तेमाल करके एक रिपब्लिकन राष्ट्रपति ने एक प्रमुख हड़ताल का दमन किया -- ऐसी घटना जिसने प्रतीकात्मक रूप से न्यू डील को वापस लिये जाने और नवउदारवादी शासन के आरंभ की घोषणा कर दी.