अॅकुपाई आंदोलन ने अमरीका में नई पीढ़ी के हाथों में, और एक परिवर्तित परिप्रेक्ष्य में, आंदोलनकारी राजनीति की वापसी का ऐलान किया. इस आंदोलन को स्पेन, ब्रिटेन एवं अन्य देशों में हाल में हुए विक्षोभों तथा उसी समय चलने वाली अरब वसंत की बयार से प्रेरणा मिली थी. “1% के खिलाफ 99%” का सशक्त एवं सुस्पष्ट रणघोष सड़कों पर प्रतिवाद के अंतराष्ट्रीय वर्ष 2011 की अधिकांश अवधि में पूरे अमरीका तथा अन्य देशों में भी गूंजता रहा. इसमें संघर्ष के दौरान मुद्दों एवं रूपों की समृद्ध विविधता दिखाई दी. उदाहरणार्थ, अमरीका के ओकलैंड की विशिष्टता यह रही कि वहां गोदी मजदूरों की हड़तालों और नाकेबंदियों को अत्यंत सफल ढंग से संगठित किया गया -- वास्तव में इसने आंदोलन को “99%” के आम नारे के बजाय स्थानीय गोदी-मजदूरों की ठोस मांगों का पुख्ता आधार प्रदान किया.
लेकिन आंदोलनकारियों ने केवल 1% को ही क्यों निशाना बनाया था? क्या बाकी सब-के-सब मेहनतकश और मध्यवर्गीय लोग थे? नहीं, “99%” में कई अमीर लोग भी शामिल हैं. लेकिन आर्थिक पिरामिड के शिखर पर बैठे “1%” लोगों को चिन्हित करने का मकसद उन लोगों के खिलाफ संघर्ष को केन्द्रित करना है जो वास्तव में अमरीका के अर्थतंत्र एवं राजनीति पर अधिकार रखते हैं -- जो लोग सर्ववृहत् कारपोरेशनों में नियंत्रणकारी शेयरहोल्डिंग रखते हैं, और अक्सर सीनेटरों, सबसे ज्यादा चंदा देने वालों, राष्ट्रपति के सलाहकारों, इत्यादि की हैसियत से दोहरा प्रभाव रखते हैं. जैसा कि हाल में दिवंगत प्रगतिशील अमरीकी लेखक गोर विडाल ने वर्ष 2002 में बीबीसी को दिये गये एक साक्षात्कार में कहा था, “1% लोगों के मालिकाने में सारी सम्पदा है. वे ठीक उन सीईओ (मुख्य कार्यपालक अधिकारी) लोगों की तरह हैं जो जेल जाने के लिये कतार लगाते प्रतीत होते हैं! उनके नीचे बीस प्रतिशत लोग और हैं जो साम्राज्य के समर्थक हैं. ये लोग वकील हैं, पत्रकार हैं, राजनीतिज्ञ और बैंकर हैं, इत्यादि. एक प्रतिशत लोग बीस प्रतिशत लोगों को खरीद लेते हैं.”
जो हो, इस महान सामाजिक आंदोलन की वर्तमान स्थिति क्या है? ओकलैंड में स्कूलों को बंद होने से रोकने के लिये परिवारों द्वारा उन पर डेरा डालने जैसी घटनाएं, देश भर में बेदखली और बंधकी की राशि न चुका पाने के कारण घर के छिन जाने (फोरक्लोजर) को रोकने के लिये डेरा डालने वालों की गतिविधियों की रिपोर्टें अक्सर स्वतंत्र (जो मुख्यधारा का नहीं है) मीडिया में दिख जाती हैं. 17 सितम्बर को तीन-दिवसीय (15-17 सितम्बर) ऐक्शन प्रोग्राम के अंग के बतौर, प्रदर्शनकारी वाॅल स्ट्रीट अॅकुपाई की पहली वार्षिकी मनाने के लिये न्यूयार्क स्टाॅक एक्सचेंज के निकट जमा हुए, उस दिन की याद में जब उन्होंने जुकोटी पार्क में डेरा डालना शुरू किया था. सारी दुनिया में अन्य कई शहरों इस यादगार दिन को मनाने के लिये मार्च और रैलियां आयोजित की गईं. लोग अच्छी-खासी तादाद में इन कार्यक्रमों में शामिल हुए. भाषण भी दिये गये. लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वह अत्यंत व्यापक आंदोलन अब कई छोटे-छोटे आंदोलनों में, टुकड़ों में बंट चुका है, जिनमें से कुछेक ग्रुप पर्यावरण के मुद्दे उठाने में व्यस्त हैं, तो अन्य ग्रुप कुछेक जरूरी स्थानीय समस्याओं से चिपक गये हैं, और इन सबके बीच आपस में कोई समन्वय नहीं रहता.
तो रास्ते में चूक कहां हुई? राजनीतिक रूप से एकदम खुला दरवाजा छोड़ देने, समानता पर आधारित संगठन (horizontalism-क्षैतिजवाद) और सर्वसम्मति से ही फैसला लेने की पद्धति अपनाने के कारण शुरूआत में आंदोलन को अच्छी सफलता मिली, लेकिन ठीक इसी चीज ने उनको और तीखे ढंग से राजनीतिक रूप से केन्द्रित करने नहीं दिया तथा नई मंजिल में, राज्य दमन के बाद की मंजिल में, आंदोलन चलाते जाने के लिये आवश्यक चोट करने की क्षमता नहीं हासिल करने दी. लोकतांत्रिक ढंग से सूत्रबद्ध किये गये एक साझे लक्ष्य और एकताबद्ध करने वाले किसी केन्द्र के अभाव में “अकुपाई” आंदोलन के बैनर तले जिस भारी मात्रा में सामाजिक ऊर्जा की गोलबंदी हुई थी, वह अत्यधिक लम्बे अरसे के लिये धुंध की स्थिति में ही रह गई, उसने ठोस आकार नहीं धारण किया और स्वाभाविक नियम के बतौर अपरिहार्य रूप से राजनीतिक शून्य में बिखर गई.
लेकिन ऊर्जा तो कभी नष्ट नहीं होती, हो ही नहीं सकती. वह अनगिनत बार रूपांतरित हो सकती है और उसके बाद, जब कुछेक खास स्थितियां मौजूद हों, तो संघनित होकर वह ठोस चीज में बदल जा सकती है. इस समय अॅकुपाई आंदोलन की ऊर्जा सभी स्तरों पर कार्य कर रही है, जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है; उसका एक हिस्सा नाटो (नार्थ अटलांटिक ट्रीटी आॅर्गनाइजेशन) एवं जी-8 के शिखर सम्मेलनों के खिलाफ प्रतिवाद जैसी उच्चतर राजनीतिक कार्रवाइयों की ओर मुड़ गया, और संभवतः उसका बड़ा हिस्सा राष्ट्रपति पद के लिये चुनाव में अपेक्षाकृत अधिक जन-विरोधी रिपब्लिकन उम्मीदवार को हराने के नाम पर ओबामा के लिये प्रचार आंदोलन में लग गया. मगर चूंकि “99%” के आंदोलन का मूल स्रोत -- नवउदारवादी व्यवस्था का संकट, जिसने औसत अमरीकियों के जीवन में असहनीय कठिनाइयां पैदा कर दी हैं -- केवल और ज्यादा बिगड़ने की ओर जा रहा है. अब क्या किया जाय, इसके बारे में आजकल एक जीवंत बहस चल रही है.
अॅकुपाई आन्दोलन एक ऐसी चिनगारी थी जिसे तुरंत ही जंगल की आग की तरह भड़क उठने की वस्तुगत एवं आत्मगत स्थितियां नहीं हासिल हुईं. लेकिन, अपनी तमाम ऐतिहासिक सीमाओं के बावजूद, वह लगातार जारी है, और फैल भी रहा है. आंदोलन में शामिल कई लोगों को भारत के मध्य प्रदेश के खांडवा जिले में चले जल सत्याग्रह, और तमिलनाडु में कूडन्कुलम परमाणु बिजलीघर के खिलाफ चल रहे प्रतिवाद को देखकर, इन संघर्षों को अपने संघर्ष का अंग मानकर, गर्व महसूस हो रहा है. हमें भी क्यों न हो ?
सिन्थिया अल्वारेज
[ 17 सितम्बर, 2012, कांउटरकरेंट्स आर्ग ]
समस्त मानव संगठनों को अवश्य ही इस समस्या को हल करना होगा : नेतृत्व में नियोजित प्राधिकार और सामूहिक प्राधिकार के बीच संतुलन कायम करना. नेतृत्व एवं लिखित नियमों के बगैर अॅकुपाई आंदोलन पहलकदमी नहीं ले सकता और न ही वह आक्रमण के लिये आगे बढ़ सकता है. अॅकुपाई फिलॉसफी के गलत, अव्यावहारिक और यथार्थहीन तत्व इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि वह कभी भी प्रगतिशील लड़ाकू शक्ति नहीं बन सकता. जीत हासिल करने में मददगार संगठन के हित में केवल इन बाधाओं को निकाल फेंकने के जरिये प्रगतिशील तत्व सामाजिक सुधार की गंभीर चालक शक्ति का निर्माण कर सकेंगे. अॅकुपाई आंदोलन में भाग लेने वाले गंभीर विचार-बुद्धि वाले लोगों को, जो समाज का पुननिर्माण करना चाहते हैं, बेहतर संगठित प्रगतिशील ग्रुपों की ओर बढ़ना चाहिये. मैं अकुपाई नेटवर्कों की समर्थक रहूंगी और अॅकुपाई की प्रत्यक्ष कार्रवाइयों में हिस्सा ले सकती हूं. मगर मुख्य तौर पर मैं ऐसे अन्य प्रगतिशील ग्रुपों की तलाश करूंगी जो वास्तव में कुछ कर सकते हैं. उदाहरणार्थ, ग्रीन पार्टी में प्रेरणाप्रद नेता मौजूद हैं और उनके पास “ग्रीन न्यू डील” के लिये एक रचनात्मक यौजना भी है. शायद वक्त आ गया है कि (अंतत) एक राष्ट्रीय प्रगतिशील पार्टी का सृजन किया जाय – जो तमाम प्रगतिशील लोगों के लिये एक छतरीनुमा पार्टी होगी जो एक सामान्य प्रगतिशील मंच की आवाज होगी और राष्ट्रीय नीतियों को प्रस्तावित करने के लिये सुविधाजनक स्थिति मुहैया करेगी.